"विश्वशास्त्र" साहित्य समीक्षा por Kalki Avatar

"विश्वशास्त्र" साहित्य समीक्षा वीर युग के श्री राम जो एक सत्य और मर्यादा के विग्रह, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, पिता थे. वे भी हमारी तरह भौतिक शरीर वाले ही मनुष्य थे. भगवान श्री कृष्ण जिन्होने "मैं, अनासक्त कर्म और ज्ञान योग", स्वामी विवेकानन्द जिन्होनंे "विश्व धर्म के लिए वेदान्त की व्यावहारिकता", शंकराचार्य जिन्होने "मैं और शिव", महावीर जिन्होने "निर्वाण", गुरू नानक जिन्होनंे "शब्द शक्ति", मुहम्मद पैगम्बर जिन्होनंे "प्रेम और एकता", ईसामसीह जिन्होनें "प्रेम और सेवा", भगवान बुद्ध जिन्होनें "स्वयं के द्वारा मुक्ति, अहिंसा और ध्यान" जैसे विषयांे को इस ब्रह्माण्ड के विकास के लिए अदृश्य ज्ञान को दृश्य रूप में परिवर्तित किये, वे सभी हमारी तरह भौतिक शरीर वाले ही थे. अन्य प्राचीन ऋषि-मुनि गण, गोरख, कबीर, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, आचार्य रजनीश "ओशो", महर्षि महेश योगी, बाबा रामदेव इत्यादि स्वतन्त्रता आन्दोलन में रानी लक्ष्मी बाई, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, लोकमान्य तिलक , सरदार पटेल, महात्मा गाँधी, पं 0 जवाहर लाल नेहरू इत्यादि. स्वतन्त्र भारत में डाॅ 0 राजेन्द्र प्रसाद, डाॅ 0 भीमराव अम्बेडकर, श्रीमती इन्दिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गँाधी, अटल बिहारी वाजपेयी इत्यादि और अन्य जिन्हंे हम यहाँ लिख नहीं पा रहे है. और वे भी जो अपनी पहचान न दे पाये लेकिन इस ब्रह्माण्डीय विकास में उनका योगदान अवश्य मूल रूप से है, वे सभी हमारी तरह भौतिक शरीर युक्त ही थे या हैं. फिर क्या था कि वे सभी आपस में विशेषीकृत और सामान्यीकृत महत्ता के वर्ग में बाँटे जा सकते हैं या बाँटे गये हंै? उपरोक्त महापुरूषांे के ही समय में अन्य समतुल्य भौतिक शरीर भी थे. फिर वे क्यों नहीं उपरोक्त महत्ता की श्रंृखला में व्यक्त हुये? उपरोक्त प्रश्न जब भारतीय दर्शन शास्त्र से किया जाता है. तो साख्य दर्शन कहता है- प्रकृति से, वैशेषिक दर्शन कहता है-काल अर्थात समय से, मीमांसा दर्शन कहता है- कर्म से, योग दर्शन कहता है- पुरूषार्थ से, न्याय दर्शन कहता है- परमाणु से, वेदान्त दर्शन कहता है- ब्रह्म से , कारण एक हो, अनेक हो या सम्पूर्ण हो, उत्तर यह है- अंतः शक्ति और बाह्य शक्ति से. भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में कुछ लोगो ंने बाह्य शक्ति का प्रयोग किया तो कुछ लोगो ने बाह्य शक्ति प्रयोगकर्ता के लिए आत्म शक्ति बनकर अन्तः शक्ति का प्रयोग किया. अन्तः शक्ति ही आत्म शक्ति है. यह आत्मशक्ति ही व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्ति होती है. इस अन्तः शक्ति का मूल कारण सत्य-धर्म-ज्ञान है अर्थात एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म और एकात्म ध्यान. एकात्म ध्यान न हो तो एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म स्थायित्व प्राप्त नहीं कर पाता. यदि सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह इत्यादि बाह्य जगत के क्रान्तिकारी थे तो स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, महर्षि अरविन्द अन्तः जगत के क्रान्तिकारी थे. स्वामी विवेकानन्द मात्र केवल भारत की स्वतंत्रता की आत्म शक्ति ही नहीं थे बल्कि उन्होंनंे जो दो मुख्य कार्य किये वे हैं- स्वतन्त्र भारत की व्यवस्था पर सत्य दृष्टि और भारतीय प्राच्य भाव या हिन्दू भाव या वेदान्तिक भाव का विश्व में प्रचार सहित शिव भाव से जीव सेवा . ये दो कार्य ही भारत की महानता तथा विश्व गुरू पद पर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य रूप से पीठासीन होने के आधार है. वेदान्तिक भाव और शिव भाव से जीव सेवा तो वर्तमान में उनके द्वारा स्थापित "रामकृष्ण मिशन" की विश्वव्यापी शाखाओं द्वारा पिछले 110 वर्षाे से मानव जाति को सरोबार कर रहा है. वहीं भारत की व्यवस्था पर सत्य दृष्टि आज भी मात्र उनकी वाणियों तक ही सीमित रह गयी. उसका मूल कारण सत्य-धर्म-ज्ञान आधारित भारत, जिस धर्म को विभिन्न मार्गाे से समझाने के लिए विभिन्न अर्थ युक्त प्रक्षेपण जैसे मूर्ति, पौराणिक कथाआंे इत्यादि को प्रक्षेपित किया था, आज भारत स्वयं उस अपनी ही कृति को सत्य मानकर उस धर्म और सत्य- सिद्धान्त से बहुत दूर निकल आया. परिणाम यहाँ तक पहुँच गया कि जो हिन्दू धर्म समग्र संसार को अपने में समाहित कर लेने की व्यापकता रखता था, वह संकीर्ण मूर्तियांे तथा दूसरे धर्माे, पंथो के विरोध और तिरस्कार तक सीमीत हो गया. यह उसी प्रकार हो गया जैसे वर्तमान पदार्थ विज्ञान और तकनीकी से उत्पन्न सामान्य उपकरण पंखा, रेडियो, टेलीविजन इत्यादि को आविष्कृत करने वाले इसे ही सत्य मान लें और इन सब को क्रियाशील रखने वाले सिद्धान्त को भूला दे. लेकिन क्या भारत का वह धर्म-सत्य-सिद्धान्त अदृश्य हो जायेगा. तब तो भारत का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा. लेकिन भारत का इतिहास साक्षी है कि भारत मंे कभी भी ऐसे महापुरूषांे का अभाव नहीं रहा जिनमें सम्पूर्ण विश्व को हिला देने वाली आध्यात्मिक शक्ति का अभाव रहा हो और मात्र यही तपोभूमि भारत की अमरता का मूल रहा है. जिस पर भारतीयांे को गर्व रहा है. वर्तमान समय मंे भारत को पुनः और अन्तिम कार्य से युक्त ऐसे महापुरूष की आवश्यकता थी जो न तो राज्य क्षेत्र का हो, न ही धर्म क्षेत्र का. कारण दोनो क्षेत्र के व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमता का सर्वोच्च और अन्तिम प्रदर्शन कर चुके है जिसमंे सत्य को यथारूप आविष्कृत कर प्रस्तुत करने, उसे भारतभूमि से प्रसारित करने, अद्धैत वेदान्त को अपने ज्ञान बुद्धि से स्थापित करने, दर्शनो के स्तर को व्यक्त करने, धार्मिक विचारों को विस्तृत विश्वव्यापक और असीम करने, मानव जाति का आध्यात्मिकरण करने, धर्म को यर्थाथ कर सम्पूर्ण मानव जीवन में प्रवेश कराने, आध्यात्मिक स्वतन्त्रता अर्थात मुक्ति का मार्ग दिखाने, सभी धर्मो से समन्वय करने, मानव को सभी धर्मशास्त्रों से उपर उठाने, दृश्य कार्य-कारणवाद को व्यक्त करने, आध्यात्मिक विचारो की बाढ़ लाने, वेदान्त युक्त पाश्चात्य विज्ञान को प्रस्तुत करने और उसे घरेलू जीवन में परिणत करने, भारत के आमूल परिर्वतन के सूत्र प्रस्तुत करने, युवको को गम्भीर बनाने, आत्मशक्ति से पुनरूत्थान करने, प्रचण्ड रजस की भावना से ओत प्रोत और प्राणो तक की चिन्ता न करने वाले और सत्य आधारित राजनीति करने की संयुक्त शक्ति से युक्त होकर व्यक्त हो और कहे कि जिस प्रकार मैं भारत का हूँ उसी प्रकार मैं समग्र जगत का भी हूँ. उपरोक्त समस्त कार्याे से युक्त हमारी तरह ही भौतिक शरीर से युक्त विश्वधर्म, सार्वभौमधर्म, एकात्म ज्ञान, एकात्म कर्म, एकात्म ध्यान, कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद (धर्मयुक्त शास्त्र) अर्थात विश्वमानक शून्य श्रंृखला-मन की गुणवत्ता का विश्वमानक (धर्मनिरपेक्ष और सर्वधर्मसमभाव शास्त्र), विकास दर्शन, विश्व व्यवस्था का न्यूनतम एवं अधिकतम साझा कार्यक्रम, 21 वीं शदी का कार्यक्रम और पूर्ण शिक्षा प्रणाली, विवाद मुक्त तन्त्रों पर आधारित संविधान, निर्माण का आध्यात्मिक न्यूट्रान बम से युक्त भगवान विष्णु के मुख्य अवतारों में दसवाँ अन्तिम और कुल 24 अवतारों में चैबीसवाँ अन्तिम निष्कलंक कल्कि और भगवान शंकर के बाइसवें अन्तिम भोगेश्वर अवतार के संयुक्त पूर्णावतार लव कुश सिंह "विश्वमानव" (स्वामी विवेकानन्द की अगली एवं पूर्ण ब्रह्म की अन्तिम कड़ी), स्व प्रकाशित व सार्वभौम गुण से युक्त 8 वें सांवर्णि मनु, काल को परिभाषित करने के कारण काल ​​रूप, युग को परिभाषित व परिवर्तन के कारण युग परिवर्तक, शास्त्र रचना के कारण व्यास के रूप में व्यक्त हैं जो स्वामी विवेकानन्द के अधूरे कार्य स्वतन्त्र भारत की सत्य व्यवस्था को पूर्ण रूप से पूर्ण करते हुये भारत के इतिहास की पुनरावृत्ति है जिस पर सदैव भारतीयों को गर्व रहेगा. उस सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, मुक्त एवं बद्ध विश्वात्मा के भारत में व्यक्त होने की प्रतीक्षा भारतवासियो को रही है. जिसमे सभी धर्म, सर्वाेच्च ज्ञान, सर्वाेच्च कर्म, सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त इत्यादि सम्पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित व्यक्त दृश्य रूप से मोतियांे की भँाति गूथंे हुये हंै. इस प्रकार भारत अपने शारीरिक स्वतन्त्रता व संविधान के लागू होने के उपरान्त वर्तमान समय में जिस कत्र्तव्य और दायित्व का बोध कर रहा है. भारतीय संसद अर्थात विश्वमन संसद जिस सार्वभौम सत्य या सार्वजनिक सत्य की खोज करने के लिए लोकतन्त्र के रूप में व्यक्त हुआ है. जिससे स्वस्थ लोकतंत्र, समाज स्वस्थ, उद्योेग और पूर्ण मानव की प्राप्ति हो सकती है, उस ज्ञान से युक्त विश्वात्मा लव कुश सिंह "विश्वमानव" वैश्विक व राष्ट्रीय बौद्धिक क्षमता के सर्वाेच्च और अन्तिम प्रतीक के रूप मंे व्यक्त हंै. निःशब्द, आश्चर्य, चमत्कार, अविश्वसनीय, प्रकाशमय इत्यादि ऐसे ही शब्द इस शास्त्र और शास्त्राकार के लिए व्यक्त हो सकते हैं. विश्व के हजारो विश्वविद्यालय जिस पूर्ण सकारात्मक एवम् एकीकरण के विश्वस्तरीय शोध को न कर पाये, वह एक ही व्यक्ति ने पूर्ण कर दिखाया हो उसे कैसे-कैसे शब्दों से व्यक्त किया जाये, यह सोच पाना और उसे व्यक्त कर पाना निःशब्द होने के सिवाय कुछ नहीं है. सन् 1987 से डाॅ 0 राम व्यास सिंह और सन् 1998 से मैं डाॅ 0 कन्हैया लाल इस शास्त्र के शास्त्राकार श्री लव कुश सिंह "विश्वमानव" से परिचित होकर वर्तमान तक सदैव सम्पर्क में रहे परन्तु "कुछ अच्छा किया जा रहा है" के अलावा बहुत अधिक व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की. और अन्त में कभी भी बिना इस शास्त्र की एक भी झलक दिखाये एकाएक समीक्षा हेतू हम दोनों के समक्ष यह शास्त्र प्रस्तुत कर दिया जाये तो इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है. जो व्यक्ति कभी किसी वर्तमान गुरू के शरणागत होने की आवश्यकता न समझा, जिसका कोई शरीरधारी प्रेरणा स्रोत न हो, किसी धार्मिक व राजनीतिक समूह का सदस्य न हो, इस कार्य से सम्बन्धित कभी सार्वजनिक रूप से समाज में व्यक्त न हुआ हो, जिस विषय का आविष्कार किया गया, वह उसके जीवन का शैक्षणिक विषय न रहा हो, 45 वर्ष के अपने वर्तमान अवस्था तक एक साथ कभी भी 45 लोगों से भी न मिला हो, यहाँ तक कि उसको इस रूप में 45 आदमी भी न जानते हों, यदि जानते भी हो तो पहचानते न हों और जो पहचानते हों वे इस रूप को जानते न हों, वह अचानक इस शास्त्र को प्रस्तुत कर दें तो इससे बडा चमत्कार क्या हो सकता है. जिस व्यक्ति का जीवन, शैक्षणिक योग्यता और कर्मरूप यह शास्त्र तीनों का कोई सम्बन्ध न हो अर्थात तीनों तीन व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हों, इससे बड़ी अविश्वसनीय स्थिति क्या हो सकती है. प्रस्तुत शास्त्र में जन्म-जीवन-पुनर्जन्म-अवतार-साकार ईश्वर-निराकार ईश्वर, अदृश्य और दृश्य ईश्वर नाम, मानसिक मृत्यु व जन्म, भूत-वर्तमान-भविष्य, शिक्षा व पूर्ण शिक्षा, संविधान व विश्व संविधान, ग्राम सरकार व विश्व सरकार, विश्व शान्ति व एकता, स्थिरता व व्यापार, विचारधारा व क्रियाकलाप, त्याग और भोग, राधा और धारा, प्रकृति और अहंकार, कत्र्तव्य और अधिकार, राजनीति व विश्व राजनीति, व्यक्ति और वैश्विक व्यक्ति, मानवतावाद व एकात्मकर्मवाद, नायक-शास्त्राकार-आत्मकथा, महाभारत और विश्वभारत, जाति और समाजनीति, मन और मन का विश्वमानक, मानव और पूर्ण मानव एवं पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी, आॅकड़ा व सूचना और विश्लेषण, शास्त्र और पुराण इत्यादि अनेको विषय इस प्रकार घुले हुये हैं जिन्हें अलग कर पाना कठिन कार्य है और इससे बड़ा प्रकाशमय शास्त्र क्या हो सकता है. जिसमें एक ही शास्त्र द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान स्वप्रेरित होकर प्राप्त किया जा सके. इस व्यस्त जीवन में कम समय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का इससे सर्वोच्च शास्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती. इस शास्त्र के अध्ययन से यह अनुभव होता हे कि वर्तमान तक के उपलब्ध धर्मशास्त्र कितने सीमित व अल्प ज्ञान देने वाले हैं परन्तु वे इस शास्त्र तक पहुँचने के लिए एक चरण के पूर्ण योग्य हैं और सदैव रहेगें. इस शास्त्र में अनेक ऐसे विचार हैं जिसपर अहिंसक विश्वव्यापी राजनीतिक भूकम्प लायी जा सकती है तथा अनेक ऐसे विचार है जिसपर व्यापक व्यापार भी किया जा सकता है. इस आधार पर अपने जीवन के समय में अर्जित विश्व के सबसे धनी व्यक्ति विल गेट्स की पुस्तक "बिजनेस @ द स्पीड आॅफ थाॅट (विचार की गति व्यापार की गति के अनुसार चलती है)" का विचार सत्य रूप में दिखता है. और यह कोई नई घटना नहीं है. सदैव ऐसा होता रहा है कि एक नई विचारधारा से व्यापक व्यापार जन्म लेता रहा है जिसका उदाहरण पुराण, श्रीराम, श्रीकृष्ण इल्यादि के व्यक्त होने की घटना है. "महाभारत" टी.वी. सीरीयल के बाद अब "विश्वभारत" टी.वी. सीरीयल निर्माण हेतू भी यह शास्त्र मार्ग खोलता है. शास्त्र को जिस दृष्टि से देखा जाय उस दृष्टि से पूर्ण सत्य दिखता है. विश्वविद्यालयों के लिए यह अलग फैकल्टी या स्वयं एक विश्वविद्यालय के संचालन के लिए उपयुक्त है तो जनता व जनसंगठन के लिए जनहित याचिका 1. पूर्ण शिक्षा का अधिकार 2.राष्ट्रीय शास्त्र 3. नागरिक मन निर्माण का मानक 4. सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त 5. गणराज्य का सत्य रूप के माध्यम से सर्वोच्च कार्य करने का भी अवसर देता है. भारत में "शिक्षा के अधिकार अधिनियम" के उपरान्त "पूर्ण शिक्षा के अधिकार अधिनियम" को भी जन्म देने में पूर्णतया सक्षम है. साथ ही जब तक शिक्षा पाठ्यक्रम नहीं बदलता तब तक पूर्ण ज्ञान हेतू पूरक पुस्तक के रूप में यह बिल्कुल सत्य है. यह उसी प्रकार है जिस प्रकार शारीरिक आवश्यकता के लिए व्यक्ति संतुलित विटामिन-मिनरल से युक्त दवा भोजन के अलावा लेता है. प्रस्तुत एक ही शास्त्र द्वारा पृथ्वी के मनुष्यों के अनन्त मानसिक समस्याओं का हल जिस प्रकार प्राप्त हुआ है उसका सही मूल्यांकन सिर्फ यह है कि यह विश्व के पुनर्जन्म का अध्याय और युग परिवर्तन का सिद्धान्त है जिससे यह विश्व एक सत्य विचारधारा पर आधारित होकर एकीकृत शक्ति से मनुष्य के अनन्त विकास के लिए मार्ग खोलता है और यह विश्व अनन्त पथ पर चलने के लिए नया जीवन ग्रहण करता है. शास्त्र अध्ययन के उपरान्त ऐसा अनुभव होता है कि इसमें जो कुछ भी है वह तो पहले से ही है बस उसे संगठित रूप दिया गया है और एक नई दृष्टि दी गई है जिससे सभी को सब कुछ समझने की दृष्टि प्राप्त होती है.